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पगडंडी ,
जो अनजाने कुहरों के पार डूब जाती है
आओ आज फिर ढूंढें उस गुम पगडंडी को
शायद घर लौटने की कोई सूरत दिख जाए
जो बिसरी हुई है सालों साल
दिमाग के किसी कोने मे,
हल्के से खुरचने पर चप्पड़ छूटने लगते हैं
जंग खाये हुये लोहे की तरह…
और उसको संभाल कर सहेजना पड़ता है
डर है कहीं
चोट न लग जाय उन यादों से …
पुरानी बखरी,
नीम का पेड़
जिसकी ऊँचाई पर बैठा
वो नीलकंठ
अलसुबह देखने के लिए उठ जाती थी आँखे अनायास
और कभी न दिखने पर
दिन भर भटकती आँखे….
कुओं की जगत पर
जवान होती सुबह
सब कुछ खो सा गया है
कुहरे मे डूबे पगडंडी की वजह से
खो गयी है
फीकी हंसी
पुरखों की,
कलुआ की ,
मटरुआ की,
और हाँ ,
घर के चनेर पे बैठे
उस कौवे के कांव कांव की भी,
जिससे किसी अपने के आने की
उससे मिलने के कसक की
याद ताज़ा हो जाय
और वो याद
जला जाय एक दिया,
न टिमटिमाने वाला
न हवाओं के थपेड़ों से
बुझने वाला….
उसकी जिजीविषा मे
अंधेरों से लड़ने की
कुछ तो ताकत होगी
शायद,
जिससे
उन अनजाने कुहरों के तिलस्म को
तोड़ने का हौसला मिले
और फिर,
पगडंडी का कुछ अहसास मिले
इस घने कोहरे मे…!
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