Menu
blogid : 3642 postid : 593881

कोट

Vimarsh
Vimarsh
  • 13 Posts
  • 53 Comments

आज वह बहुत खुश था । हो भी क्यो न आज उसके बचपन की मुराद पूरी होने जा रही थी । आज जब उसने कोट के लिए कपड़ा खरीदा तो उसे लगा की वह उस सपने को पूरा करने जा रहा है जो उसने आज से 25 साल पहले देखा था । सपना बहुत बड़ा भी नहीं महज़ एक कोट का था पर एक निम्न मध्यम वर्गीय परिवार के लिए कोट खरीदना और पहनना अपने आप मे एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। इसे उससे ज़्यादा  कौन जान सकता है। पर हर बार कुछ न कुछ ऐसी समस्याएँ आ जाती थी कि उसे अपना प्रोग्राम बदल लेना पड़ता था, आखिरकार परिवार पहले फिर अपना शौक़ ।

      अक्सर वह सोचता था कि शायद वह उन तमाम बदनसीब लोगों मे है जो पैदा होते हैं और घिसटते हुए जिंदगी जीते हैं और एक दिन किसी तरह अपने रोल को अदा करते हुए दुनिया से विदा ले लेते हैं। बचपन से उसने यही सुना था कि ये सब हमारे लिए नहीं बनी हैं , वो सोचता था कि क्यों पर उस समय दिमाग पर ज़्यादा ज़ोर देना उसे अच्छा नहीं लगता था सुना और भूल गया। अरे किसे नहीं अच्छा लगता एक अच्छी ज़िंदगी जीना पर क्या यह संभव है ? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका जवाब तो शायद हकीम लुक़मान के पास भी न होगा । उसे हंसी आ गयी यह सब सोचते हुए लेकिन ये तो सच है कि इस बार जब उसने कोट बनवाने का फैसला किया तो नितांत उसका फैसला था । दूर दूर तक सारे खर्चों को सोचने के बाद, सारे हिसाब लगाने के बाद उसने तय किया कि इस बार तो वह कोट बनवा ही लेगा।

      कोट का कपड़ा दुकान से लेकर वह दर्जी की दुकान कि तरफ जाने लगा। आसमान की तरफ उड़ती हुई नज़र डाली , सूरज कुम्हलाया हुआ था हवा कुछ सर्द थी, जबकि अभी जाड़े की शुरुआत ही थी, पर कोट के कपड़े कि गर्मी उसे इस बात का एहसास ही नहीं होने दे रही थी । उसे अपना बचपन याद आ गया जब ठंडी के दिनों मे उसकी माँ पुराने चद्दर का तिकोने जैसा खोल बना कर उसे लपेट देती थी और कौड़ा के पास आग तापते, भुने हुए आलू खाते ठंडी न जाने कहाँ चली जाती थी उसे पता ही नहीं चलता था। ज़िंदगी एक सीधी सपाट  राह  पर थी और वहाँ कुछ भी अप्रत्याशित नहीं था। एक मजबूर पर आरामदेय ज़िंदगी, न ज्यादा की चाहत और न ज्यादा की  फिक्र । कभी कभी गरीबी आदमी को बेबस कर देती है पर अक्सर जिंदगी को जीने का एक नया फलसफा देती है । ईश्वर हमेशा कठघरे मे रहता है पर सबकुछ ईश्वर के ही  भरोसे चलता रहता है । इससे ज्यादा आसान ज़िंदगी और क्या हो सकती है ।

            आज ठंड कुछ ज्यादा है इसका अहसास उसे अचानक हुआ जब एक ठंडी हवा का झोका उसके  कनपटी  को चीरता हुआ  निकल गया और वह बचपन से सीधे वर्तमान मे आ गया । उसने उड़ती हुई नज़र अपने घड़ी पर डाली  सात बज गए थे , पता नहीं दर्जी की दुकान इतनी ठंड मे खुली होगी कि नहीं , उसने मन ही मन मे सोचा । एक बार फिर उसने अपने कोट के कपड़े पर नज़र डाली , बहुत अच्छा निखर कर आयेगा बनने के बाद और हौले से मुस्करा दिया । अब वह भी ऑफिस मे सीना चौड़ा कर जा सकेगा , वर्मा की तरह पाँच कोट न सही एक कोट का मालिक तो वो भी है अब । और जनाब किसके पास पाँच – पाँच कोट होते हैं सभी तो एक ही दो कोट मे काम चला लेते हैं, पहनना भी कितने दिन , मुश्किल से पंद्रह बीस दिन । फिर  साहब सब वर्मा जैसे  भाग्यशाली  तो नहीं हो सकते ” आगे नाथ न पीछे पगहा ” मियां बीबी हैं और कोई खर्चा नहीं, मेरी तरह परिवार चलाना पड़ता तो पूछता बच्चू से …. । उसने गरदन को हौले से झटका दिया । एक बार फिर उसने कोट के कपड़े को सहलाया एक अजीब से चमक थी उसके आंखो मे जैसे कि वह विश्व विजेता हो । कभी कभी कितनी छोटी छोटी बातें आदमी को कितनी खुशी देता है वो इस चीज को समझ सकता है ।

      बचपन मे बड़ी जद्दोजहद के बाद जब उसे बाबूजी एक कलम या फिर किताब खरीदते थे तो उस खुशी को वह बयान कर पाना शब्दों मे मुश्किल है । एक एक चीज के लिए संघर्ष उसे हर एक चीज के महत्व को स्पष्ट करता था।  कभी कभी तो उसे खीझ सी होने लगती थी, पर अब उसे लगता है कि शायद नहीं खरीद पाने की मजबूरी रही होगी नहीं तो इकलौते बेटे की जरूरतों को कौन पिता नहीं पूरा करना चाहता । उसे आज भी याद है की पहले फुल पैंट को खरीदने के लिए बाबू जी से कित्ती मिन्नत करनी पड़ी थी उसे, और जब 2 महीने के बाद उसे फुल पैंट मिली तो उसे लगा था कि अब तो वह बाबू बन गया है । पैंट पहन कर जब वह गाँव मे निकला था तो उसके हमउम्र के बच्चों मे जो धौंस बनी थी उसका असर कई दिनों तक बनी हुई थी जबकि उसने पैंट को कब का  संभाल के रख दिया था, क्योकि वह जनता था कि इसके फट जाने पे दुबारा तो मिलने से रही । लेकिन तब भी उन दिनों के अपने सुख थे , अभाव कभी भी खुशी को पार नहीं पा सकते थे । खैर ! अब उस बातों को याद करने का क्या फायदा उसने हौले से गर्दन को झटका दिया और अचानक अपने आप को दर्जी की दुकान पर पाया उसे बंद देख उसे निराशा हुई , फिर उसे लगा चलो अच्छा ही हुआ इसी बहाने कोट का कपड़ा सुधा को भी दिखा दूंगा वो भी खुश हो जाएगी । जाने कितनी बार तो उसने कहा था की अपने लिए भी कुछ बनवा लिया करो जबकि वो भी मेरी मजबूरी समझती थी । बाद मे तो उसने कहना ही बंद कर दिया । आज वह कोट का कपड़ा देख जरूर खुश हो जाएगी ।

      घर पहुँचते पहुँचते काफी देर हो गयी । बच्चे सो गए थे , उसने थोड़ी सी चुहल पत्नी से की उसने भी उसी अंदाज मे जवाब दिया । पत्नी ने देखा उसके हाथ मे कुछ है पर उसने उसे नज़रअंदाज़ कर दिया सोचा खुद ही बताएँगे । वैसे भी वो जानती थी इनको कुछ भी छिपाना मुश्किल है शायद इसीलिए अभावों के बावजूद वह अपने पति को सबसे ज्यादा मानती थी । कभी कभी वो सोचती भी थी कि ईश्वर अब शायद ऐसे इंसान बनाना बंद कर दिये हैं , न कुछ लालच और न ही ज्यादा पाने कि तमन्ना । शुरू शुरू मे तो उसे खीझ होती थी पर अब अपने संसाधनो को देखते हुए उसे अपने पति पर दया आती थी और गाहे बेगाहे उसकी कोशिश होती थी कि वो कुछ ऐसा करे कि उसके पति को अप्रत्याशित खुशी मिले । पर आज अपने पति के अंदाज पे उसे खुशी हुई उसे लगा कि 10 साल पहले का पति उसे मिल गया वरना तो वह एक ही ढर्रे पर जिंदगी जी रहे थे ।

      खाना खाते समय भी वह हल्के मूड मे था और रह रह कर गाना गुनगुनाने लगता था । रह रह कर वह अपनी पत्नी की तरफ भी देख लेता जो मंद मंद मुस्करा तो रही थी पर ऊपर से गंभीर बनी हुई थी । खाना खाने के बाद जब वह किचन के बकाया काम निपटा रही थी तो वह हौले से आया और अपने हाथों से उसके आंखो को ढक लिया और कानों मे फुसफुसाते हुए कहा कि आओ तुम्हें कुछ सरप्राइज़ दें । उसे अच्छा लगा उसने भी हाथ हटाने कि कोशिश नहीं की । जैसे ही वो कमरे मे गए उसने कोट के कपड़े से उसे ढक दिया । उसे देखते ही वो चौंक पड़ी । उसके मुह से अचानक निकल पड़ा इसीलिए मैं आपको बहुत मानती हूँ , आपने  बच्चों के स्कूल की डायरी कब पढ़ी । वो बिल्कुल चुप हो गया , हकीकत तो यह थी कि उसने कभी भी बच्चों कि डायरी नहीं पढ़ी थी । सुधा आगे बोलती जा रही थी कि बच्चों के स्कूल से लिख कर आया था कि इस बार से स्वेटर की जगह कोट अब यूनिफ़ार्म मे चलेगा , मैंने आपको नहीं बताया कि आप बेवजह परेशान होंगे और बच्चों से कह दिया था कि इस साल ऐसे ही चला लो अगले सेशन मे देखा जाएगा । अच्छा कितने मीटर कपड़ा है । ढाई । बस इतना ही बोल पाया । चलो दोनों बच्चों का कोट बन जाएगा , और सुनो कितनी दफा आपसे कहा है एकाध कोट अपने लिए भी सिलवा लो । बच्चे पहले हैं यार , अपने को कौन स्कूल जाना है  अभी पिछले ही साल तो तुमने इतना बढ़िया स्वेटर खरीदा था , उसने कहा ।

      बिस्तर पे उसे नींद नहीं आ रही थी , जबकि सुधा कब की सो गयी थी ।  वह सोच रहा था कि आज यदि दर्जी की दुकान खुली होती तो वह अनजाने मे ही कितना बड़ा अपराध कर आता । जरूरत बच्चों को थी और साहब बनने  वह चला था । उसे अपने पिता की बात याद आ गयी कि एक उम्र के बाद घर के मुखिया के कोई सपने नहीं होने चाहिए और एक वह था ….। ये तो खुशकिस्मती ही थी उसे नीले रंग का कपड़ा पसंद आया और कोई रंग ले लिया होता तो ? खैर ! मैं नहीं मेरे बच्चे कोट पहनेंगे । ईश्वर उन्हे तरक्की दे, मैं और बच्चे बटें थोड़ी हैं । ये सब सोचते सोचते उसकी नीद कब लग गई उसे पता ही नहीं चला …. एक पुरसुकून नींद ।

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh