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उसकी झील सी आँखों में
झाँक कर देखना चाहा मैंने,
कुछ न मिला
सिवाय चंद बूंदों के …
वो बूँद,
जो कभी भी भहरा सकते हैं,
जैसे कि,
तेज हवा के थपेड़ों से
कोई बालू का घर…
उसके चेहरे की मायूसी
स्पष्ट झलकती है
उसके चेहरे पर..
और सब कुछ जाकर
ख़त्म हो जाता है
उसकी आँखों में….
……..
उसमे मौजूद
एक हल्की सी चमक
फिर मज़बूर करती है उसे
देखने के लिए
एक सुन्दर से सपने का ..
सपना !
एक सुन्दर से घरौंदे का ..
और
जिसकी नीव का
शायद
कुछ पता नहीं !!
सब कुछ ईश्वर के भरोसे
और ईश्वर ??
एक अबूझ पहेली
जो अक्सर ही
अनुत्तरित रहता है..
फिर भी,
उसकी सत्ता पर
भरोसा है उसको …
मैं और मेरा अस्तित्व
न मालुम क्यों
उसके जैसा हो गया है
उसकी आँखें ,
मुझे अपनी जैसी लगती हैं
मैं ही क्यों
मेरे जैसे ,
न मालुम कितने
हज़ारों हज़ार का
जनसमुद्र ,
मुझे मिलता है उसकी आँखों में
और,
सबकी आँखों के चंद बूँद
निर्माण करते हैं
एक झील का..
बिलकुल सागर जैसी गहरी झील ..
जिन्दगी के तमाम उथल पुथल के बावजूद
बिल्कुल शांत …..
यही सब,
फिर जन्म देते हैं
एक और सुनहले से सपने को ..
और इन सपनों की चमक
एक बार फिर ,
आ गयी है उसकी आँखों में
नहीं नहीं …
मेरी भी आँखों में,
कुछ ऐसी ही चमक दिखाई दे रही है
मैं ही क्यूं ..
उन हज़ारों आँखों में
उन्ही सपनों की
संभावना जीवित होती नज़र आने लगी है ..
फिर से,
एक नयी संभावना……..
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