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मैं, बरगद और गाँव

Vimarsh
Vimarsh
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बहुत दिनों पर
अबकी बार,
जब मैं लौटा गाँव,
मैंने बूढ़े बरगद से पूछा –
बहुत बदल गए हो तुम ..
कितने सिमट गए हो तुम..
सिकुड़ गएँ हैं बांह तुम्हारे
खो गए वो छांह घनेरे ,
कहाँ गए वो बाग़ बगीचे
कहाँ गयी वो नीम की डाल
जिस पर कभी गाँव की गोरी
उड़ जाती थी
दूर गगन में
बस एक झूला डाल —-
सबकुछ बदला बदला क्यों है,
पोखर सूखा सूखा क्यों है,
खलिहान भी उजड़ गए हैं,
पनघट पर वीरानी है,
न तो बचपन दीख रहा है
न राजा न रानी है !
इतना सबकुछ बदल गया है
नहीं बदले तो केवल तुम
वहीँ खड़े तुम देख रहे हो
अपनी सूनी आँखों से-
बहुत दिनों पर
अबकी बार…
घर की देहरी दूर हो गयी-
चूल्हे भी बदल गए हैं अब,
आग मांगती बहुओं की
नहीं खनकती चूड़ी भी अब,
दुःख-सुख कहने को सारी
सजती नहीं चौपालें अब,
अमराइयों की महक खो गयी
पंख फैलाते मोर खो गए
और तो और गज़ब हो गया-
कूओं से उबहन खो गया अब,
नहीं खोया तो बस तुम्हारा
प्यार भरा वो ठंडा छांव-
बहुत दिनों पर
अबकी बार….
चेहरे सारे नए हो गए,
नहीं दीखते काका-बाबा,
कुशल-क्षेम की कौन कहे जी–
चेहरे से मुस्कान खो गया,
हर आँखों में प्रश्न तैरते,
हर रिश्ता अनजाना है-
सबकी अपनी अपनी ढपली
अपना अपना गाना है!
बखरी सारी खत्म हो गयी-
कंक्रीटों का फैलाव हुआ,
दरवाजे से बैल गुम गए,
मड़ई भी वीरान हुआ…!
फगुआ के त्योहारों के भी,
रंगों में बदलाव हुआ..
सबके सब तो बदल गए हैं
पर बदला नहीं तुम्हारा ठांव-
बहुत दिनों पर
अबकी बार …
अबकी बोला बूढ़ा बरगद —
थोड़ा कुछ सकुचाये से
बहुत दिनों के बाद आये हो
तो क्या तुम पछताए हो ?
गए यहाँ से जो न लौटे
क्या उनकी सुध लाये हो…
अरे!
परिवर्तन तो होना ही था-
आज नहीं तो कल होता
ज़रा उनकी भी तुम सोचो
छोड़ गए जिनको रोता…
कभी बाढ़ तो कभी भुखमरी,
यहाँ यही कहानी है !
ऐसे में तुम ही बतलाओ
क्या राजा क्या रानी है ?
बचपन से सीधे बुढ़ापा
यहाँ सभी का आया,
एक अकेला मैं ही हूँ
जिसने पायी पूरी काया,
फिर मुझसे तुम पूछ रहे हो
इतने सिमट गए हो तुम ..
अरे!
इतना सब सहते सहते
कमर मेरा अब टूट
गया है…
अच्छा ये बतलाओ तुम …
अगली बार जो तुम आओगे
जब मुझको भी न पाओगे…
तब बोलो हाँ बोलो तुम
किससे यह कह पाओगे…
कहाँ गए वो ताल तलैये
कहाँ गयी बहूरानी
कहाँ गए वो बाग़ बगीचे
और पनघट पर क्यों वीरानी…?

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