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संजीदगी

Vimarsh
Vimarsh
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कभी सोचा है –
भीड़ में अकेलेपन को,
कभी महसूसा है
अपनों में परायेपन को,
शोर में सन्नाटे को,
हरियाली में रेगिस्तान को,
अपने ही घर में खो जाने का
अहसास कभी हुआ है तुमको…

कभी सोचा है-
जीवन की यह लम्बी डोर
अचानक टूट जाय तो ?
अहिर्निश साँसों का प्रवाह
थम जाय तो ?
मज़बूत हौसले
हांफने लगे तो ?
खूबसूरती निहारने वाली आँखों के
पथरा जाने का डर
कभी सताया है तुमको…

मैं सोचता हूँ कि
बेहद संवेदनशील हूँ मैं
गोया,
इन सब प्रश्नों पर
गंभीरता से सोचना,
सोच कर गुनना
गुनकर परेशान होना
संजीदा होने का पहला
अनिवार्य लक्षण है…

पर,
यहाँ और भी तो हैं…
जो हंसते हैं,
खिलखिलाते और खेलते हैं..
जीवन को जी भर के जीते हैं
एक भी प्रश्न
भेद नहीं पाता उनको
या यूं कह लें
छू ही नहीं पाता उन्हें
बेहद खुश दीखते हैं वो…
और उनका खुश दिखना
मेरी परेशानी का
दुसरा सबब है
शायद –
दूसरों की खुशी
उनकी खिलखिलाहट
उनके
बेलौस जिंदगी जीने का हौसला
अखरता है मुझे ..
उनकी छोटी छोटी नादानियाँ
सालती हैं मुझे-
या फिर उनकी खुशी
बर्दाश्त नहीं हो पाती मुझे…

हे ईश्वर !
इस मकडजाल से
जितना निकलना चाहता हूँ
उतना ही फंसता
जा रहा हूँ मैं…
इस थकन और सिमटन में
घिरता हुआ मैं
उन्ही अंतहीन सवालों के
घेरे में
फंसता हुआ मैं
एक बार फिर
सोचने लगता हूँ…..

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